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लोकतंत्र बनाम न्यायपालिका: डॉ निशिकांत दुबे की तीखी टिप्पणी


क्या सुप्रीम कोर्ट की आलोचना लोकतंत्र के खिलाफ है? पढ़िए निशिकांत दुबे के बयान पर मचा विवाद।

डॉ. निशिकांत दुबे, 53 वर्षीय अनुभवी सांसद, अपने सटीक तथ्यों और तीखे तर्कों के लिए जाने जाते हैं। वे संसद में निर्भीकता से अपनी बात रखते हैं और अक्सर सच्चाई को उजागर करने का प्रयास करते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से संबंधित उनके वक्तव्य ने एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या सच्चाई कहना, लोकतंत्र की संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन है?

हमारे लोकतंत्र में न्यायपालिका एक ऐसा स्तंभ है जिस पर आमजन का अटूट विश्वास बना रहता है। यह विश्वास ही लोकतंत्र की बुनियाद है। चाहे न्याय में देरी हो, प्रक्रियाएं जटिल हों, या कुछ फैसलों को लेकर असहमति हो — फिर भी न्यायपालिका के प्रति भरोसा बनाए रखना आवश्यक माना जाता है। यह भरोसा ही लोगों को जीने की आशा देता है, खासकर उन लोगों को जिनके पास अन्य विकल्प सीमित होते हैं।

न्याय की राह में देरी, बार-बार की तारीखें और लंबी प्रक्रियाएं आम आदमी के लिए बड़ी चुनौतियां हैं। फिर भी वह अंतिम उम्मीद न्याय से ही जोड़े रखता है। यही वजह है कि आमजन अक्सर न्यायालय में सुधार की आवश्यकता महसूस करते हुए भी, उसकी गरिमा को बनाए रखते हैं।

डॉ. दुबे ने न्यायिक प्रणाली से जुड़े कुछ मुद्दों की ओर संकेत किया — जैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता, न्याय में देरी, और कुछ मामलों में न्यायिक सक्रियता और निष्क्रियता के चयनात्मक पैटर्न। ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर पहले भी सार्वजनिक चर्चा होती रही है।

लेकिन यहां सवाल उठता है कि क्या इन सवालों को उठाना अवमानना की श्रेणी में आता है? क्या लोकतंत्र में संस्थाओं पर विवेकपूर्ण आलोचना की कोई जगह नहीं रह गई है? यह विचारणीय है।

न्यायपालिका की संप्रभुता और गरिमा बनाए रखना बेहद आवश्यक है। लेकिन साथ ही लोकतांत्रिक विमर्श में स्वस्थ आलोचना और पारदर्शिता की मांग को खारिज करना भी उचित नहीं कहा जा सकता। संतुलन बनाए रखना ही लोकतंत्र की असली पहचान है।

डॉ. दुबे ने जिन बातों को उठाया, वे समाज के एक हिस्से की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनकी यह अभिव्यक्ति किसी संस्था को कमजोर करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि बेहतर न्याय प्रणाली की दिशा में संवाद की शुरुआत के रूप में देखी जानी चाहिए।


🖋️ लेखक: डॉ. जी.एस. पांडेय

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