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सिंधु जल संधि का निलंबन: भारत जल कूटनीति में रणनीतिक परिवर्तन की ओर

 

                                                                                 Photo by Edward Byers on Unsplash

24 अप्रैल 2025 | नई दिल्ली |  लेखक: डॉ. जी. एस. पांडेय

भारत और पाकिस्तान के बीच 1960 में हुई सिंधु जल संधि (Indus Waters Treaty - IWT) को एक ऐसी संधि माना जाता है, जिसने तीन युद्धों और अनेक सैन्य संघर्षों के बावजूद दोनों देशों को जल विवादों से अलग रखा। यह संधि विश्व बैंक की मध्यस्थता में तैयार हुई थी और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक सफल जल-वितरण समझौते के रूप में सराहा गया। लेकिन हाल ही में भारत द्वारा इस संधि को निलंबित करने का निर्णय केवल उपमहाद्वीप की भू-राजनीति को प्रभावित करेगा, बल्कि भारत की जल कूटनीति में एक निर्णायक मोड़ भी साबित हो सकता है

सिंधु जल संधि: एक ऐतिहासिक समझौता

यह संधि भारत और पाकिस्तान के बीच नदियों के जल बंटवारे को लेकर हुई थी, जिसमें पूर्वी नदियाँरावी, ब्यास और सतलुजभारत को आवंटित की गईं, जबकि पश्चिमी नदियाँसिंधु, झेलम और चिनाबपाकिस्तान के लिए आरक्षित की गईं। संधि के अनुच्छेद XII (3) में यह प्रावधान था कि इसे केवल दोनों देशों की परस्पर सहमति से संशोधित किया जा सकता है। यह एक स्थायी संधि है और इसमें किसी एक पक्ष द्वारा एकतरफानिकासीकी संभावना नहीं है

भारत का निर्णय: आतंकवाद के प्रति बदलती नीति का संकेत

भारत सरकार ने यह निर्णय जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए एक भीषण आतंकवादी हमले के बाद लिया, जिसमें 26 नागरिकों की जान चली गई। यह निर्णय प्रतीकात्मक और रणनीतिक दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। यह स्पष्ट संकेत है कि भारत अब "जल" जैसे संसाधनों का उपयोग केवल पारंपरिक विकास की दृष्टि से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीतिक दबाव के उपकरण के रूप में भी करेगा संधि को समाप्त नहीं किया गया है, केवल उसे निलंबित किया गया है, जिससे भारत अभी भी अंतरराष्ट्रीय कानूनी जिम्मेदारियों से पूर्णतः मुक्त नहीं होता, लेकिन पाकिस्तान पर दबाव बनाने की एक प्रभावी स्थिति में आता है

निलंबन का तात्कालिक प्रभाव: प्रतीकात्मक से रणनीतिक की ओर

भारत के इस निर्णय का सीधा असर पाकिस्तान के जल-प्रवाह पर फिलहाल नहीं पड़ेगा, क्योंकि भारत के पास अभी पर्याप्त आधारभूत ढाँचा नहीं है जिससे वह पश्चिमी नदियों का जल अपने उपयोग के लिए पूरी तरह रोक या मोड़ सके। लेकिन रणनीतिक दृष्टिकोण से यह निर्णय अत्यंत निर्णायक है क्योंकि इससे भारत को कई तत्कालिक स्वतंत्रताएँ मिलती हैं:

  • भारत अब पाकिस्तान के साथ जल प्रवाह संबंधी डेटा साझा करना बंद कर सकता है

  • सिंधु प्रणाली पर डिज़ाइन और संचालन से संबंधित पूर्व समझौतों के बंधन समाप्त हो जाते हैं

  • भारत झेलम और चिनाब पर नए जलाशय (storage structures) बना सकता है

  • भारत जम्मू-कश्मीर में निर्माणाधीन किशनगंगा (झेलम की सहायक नदी पर) और रैटल (चिनाब पर) जलविद्युत परियोजनाओं पर पाकिस्तानी तकनीकी निरीक्षण दलों के दौरे रोक सकता है

  • भारत अब किशनगंगा परियोजना पर "reservoir flushing" जैसी तकनीकें लागू कर सकता है, जिससे जलाशयों की आयु बढ़ेगी और कार्यक्षमता में सुधार होगा

कानूनी परिप्रेक्ष्य: एकतरफा निर्णय बनाम संधि की स्थायित्व प्रकृति

सिंधु जल संधि में कोई "exit clause" नहीं है, अर्थात भारत या पाकिस्तान इसे एकतरफा रद्द नहीं कर सकते। यह संधि समय-सीमा रहित है और इसमें संशोधन केवल परस्पर सहमति से ही संभव है हालाँकि, संधि के अनुच्छेद IX और संलग्नक F और G में विवाद समाधान तंत्र का स्पष्ट उल्लेख है:

  1. स्थायी सिंधु आयोग (Permanent Indus Commission) में वार्ता,

  2. उसके बाद तटस्थ विशेषज्ञ (Neutral Expert) द्वारा तकनीकी समाधान,

  3. और अंततः मध्यस्थता न्यायाधिकरण (Arbitration Court of Arbitration) की स्थापना

भारत वर्ष 2023 में पाकिस्तान की आपत्तियों के उत्तर में एक तटस्थ विशेषज्ञ की नियुक्ति की मांग कर चुका था और जनवरी 2025 में नियुक्त तटस्थ विशेषज्ञ मिशेल लीनो ने यह स्पष्ट किया कि वे इस विवाद पर निर्णय देने के लिए अधिकृत हैं। पाकिस्तान की आपत्तियों के बावजूद, विश्व बैंक ने इस नियुक्ति को वैध माना

पाकिस्तान की स्थिति: जल संकट और कानूनी असहायता की कगार पर

पाकिस्तान ने अभी तक IWT के निलंबन पर कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है। लेकिन वरिष्ठ पाकिस्तानी कानूनी विशेषज्ञ अहमर बिलाल सूफी नेडॉनको दिए बयान में स्पष्ट किया कि:

"यदि भारत इस संधि कोरद्दकरता है, तो यह समझा जाएगा कि उसने उसे पूरी तरह त्याग दिया है। ऐसे में अनुच्छेद IX के अंतर्गत मौजूद विवाद समाधान तंत्र पाकिस्तान की कोई मदद नहीं कर सकेगा क्योंकि वह केवल संधि के भीतर उठे विवादों के लिए है कि संधि को लागू कराने के लिए।"

दूसरे शब्दों मेंयदि भारत पूर्णतः बाहर हो जाता है, तो पाकिस्तान के पास अंतरराष्ट्रीय मंचों पर संधि को लागू कराने का कोई औपचारिक उपाय नहीं बचेगा

दीर्घकालिक प्रभाव: पाकिस्तान पर गहराता जल संकट

पाकिस्तान की कृषि, बिजली उत्पादन और पेयजल आपूर्ति का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी नदियों पर आधारित है। इन नदियों के जल में भारत द्वारा आंशिक या पूर्ण कटौती से पाकिस्तान को रबी और खरीफ फसलों के दौरान गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त, मंगला और टरबेला जैसे प्रमुख जलाशयों से बिजली उत्पादन बाधित हो सकता है और लाहौर, मुल्तान तथा हैदराबाद जैसे शहरों में शहरी जल संकट गहराने की आशंका है राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में जल संकट एक आग में घी का काम कर सकता है, जिससे पाकिस्तान की घरेलू नीति और उसकी विदेश नीति दोनों प्रभावित हो सकती हैं

भारत के लिए आगे की राह: रणनीतिक जल नीति की आवश्यकता

भारत के पास पूर्वी नदियों पर पूर्ण अधिकार है, लेकिन बुनियादी ढांचे की कमी के कारण आज भी बहुत सारा जल पाकिस्तान की ओर बहता है। रावी, ब्यास और सतलुज के जल का पूर्ण उपयोग करने के लिए भारत को शाहपुर कंडी, उज्ह बहुउद्देश्यीय परियोजना और रावी-ब्यास लिंक जैसी परियोजनाओं को शीघ्र पूरा करना होगा वहीं पश्चिमी नदियों पर भारत के पास सीमित अधिकार हैं, परंतुरन-ऑफ--रिवर’ (RoR) परियोजनाएँ जैसे किशनगंगा, रैटल, पकल दुल, और बर्सर का तेजी से निर्माण और संचालन भारत को अपने हिस्से के जल के अधिकतम उपयोग का अवसर देगा। साथ ही जल प्रबंधन में रीयल-टाइम डेटा प्रणाली, जल संरक्षण तकनीक और अंतरराज्यीय समन्वय को भी मज़बूत करना होगा

अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ और भ्रम की स्थिति

विश्व बैंक, जो इस संधि का गारंटर है, पहले ही इस मुद्दे में तटस्थ विशेषज्ञों की नियुक्ति कर चुका है। जनवरी 2025 में तटस्थ विशेषज्ञ मिशेल लीनो ने स्पष्ट किया कि वह दोनों देशों के विवाद पर निर्णय देने के लिए अधिकृत हैं। पाकिस्तान ने इस पर आपत्ति जताई, परंतु भारत ने संधि के अनुबंधों के अंतर्गत विशेषज्ञ की वैधता को बरकरार रखा

निष्कर्ष: जल से शांति तकनई भारतीय कूटनीति

भारत का यह कदम इस बात का प्रमाण है कि अब कूटनीति केवल बैठकों और समझौतों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संसाधनों के रणनीतिक उपयोग से भी परिभाषित होती है। जल अब केवल जीवन का स्रोत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और भू-राजनीतिक संतुलन का एक शक्तिशाली उपकरण बनता जा रहा है

हालांकि इस बदलाव को क्रियान्वित करने में कई चुनौतियाँ आएंगीअवसंरचना निर्माण, पर्यावरणीय प्रभाव, और अंतरराष्ट्रीय दबाव, लेकिन यदि भारत इस नीति को संवेदनशीलता, सामरिक बुद्धिमत्ता और टिकाऊ विकास के साथ लागू करता है, तो यह उपमहाद्वीप में स्थायी शांति को नई दिशा दे सकता है


 डॉ. जी. एस. पांडेय


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